भारत में अधिकतर लोगों का अध्यात्म के प्रति झुकाव स्वाभाविक कारणों से होता है। मात पिता और अन्य बुजुर्गों की प्रेरणा से अपने देवताओं की तस्वीरों के प्रति उनका आकर्षण इतना रहता है कि बचपने में ही उनके अध्ययने की किताबों और कापियों पर उनकी झाकियां देखी जा सकतीं हैं। मुझे याद है कि बचपन में जब कापियां खरीदने जाता तो भगवान की तस्वीरों की ही खरीदता था। एक बार अपनी मां से पैसे लेकर एक मोटी कापी लेने बाजार गया वहां पर भगवान की तस्वीर वाली कापी तो नहीं मिली हां एक कापी पर ‘ज्ञान संचय’ छपा था वह खरीद ली। वह घर लाया तो ‘ज्ञान’ शब्द ने दिमाग पर ऐसा प्रभाव डाला कि उस कुछ ऐसे ही लिखना शुरू कर दिया। फिर एक छोटी कहानी लिखने का प्रयास किया। तब मैंने सोचा कि इस पर तो मैं कुछ और लिखूंगा और विद्यालय का काम उस पर न करने का विचार किया। इसलिये फिर अपनी मां से दूसरी कापी लेने बाजार गया और अपने मनोमुताबिक भगवान जी की तस्वीर वाली किताब ले आया। वह ज्ञान संचय वाली किताब मुझे लेखक बनाने के काम में आयी।
आशय यह है कि पहले बाजार लोगों की भावनाओं को भुनाता था और ऐसी देवी देवताओं की तस्वीर वाली किताबें और कापियां छापता था जिससे लोग खरीदें। बाजार आज भी यही करता है और मैं उस पर कोई आक्षेप भी नहीं करता क्योंकि उसका यही काम है पर उसके सामने अब दूसरा संकट है कि आज के अनेक अध्यात्मिक संतों ने अपना ठेका समझकर अनेक वस्तुओं का उत्पादन और वितरण अपने हाथ के लिया है जिनका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं और इस तरह उसने बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की बिक्री में से बहुत बड़ा भाग छीन लिया है। दवायंे, कैलेंडर, पेन, चाबी के छल्ले, डायरी और कापियां भी ऐसे आध्यात्मिक संस्थान बेचने लगे हैं जिन्हें केवल प्रचार का काम करना चाहिए।
उस दिन एक कापी और किताब बेचने वाले मेरे मित्र से मेरी मुलाकात हुई। मैं स्कूटर पर उसकी दुकान पर गया और कोई सामान उसे देने के लिये ले गया। उससे जब मैंने धंधे के बारे में पूछा तो उसने बातचीत में बताया कि अब अगर अध्यात्म लोग पेन, डायरियां और कापियां बेचेंगे तो हमसे कौन लेगा? अब तो संतों के शिष्य अधिक हो गये हैं और वह कापियां और पेन बेचते हैं। अगर कहो तो उनके भक्त घर पर भी दे जाते हैं।
मै सोच में पड़ गया क्योंकि मात्र पंद्रह मिनट पहले ही मुझे मेरे एक साथी ने एक रजिस्टर दिया था और और वह अध्यात्मिक संस्थान द्वारा प्रकाशित था। उस पर अध्यात्मक संत का चित्र भी था। मैनें उससे कई बार ऐसा रजिस्टर लिया है। वह और उस जैसे कई लोग आध्यात्मिक संस्थाओं को उत्पादों को सेवा भाव से ऐसी वस्तुऐं उपलब्ध कराते हैं। देखा जाये तो वह अध्यात्मिक कंपनियों के लिये भक्त लोग मुफ्त में हाकर की भूमिका अपने भक्ति भाव के कारण निभाते हैं। कई जगह इन अध्यात्मिक संस्थानों की बसें अपने उत्पाद बेचने के लिये आतीं हैं। कई संस्थान अपनी मासिक पत्रिकायें निकालते हें लोग पढ़ें या नहीं पर भक्ति भाव के कारण खरीदते हैं। इस तरह जहां घरों में पहले साहित्यक या सामाजिक पत्र पत्रिकाओं की जगह थी वहां इन धार्मिक पत्रिकाओं ने ले ली है। शायद कुछ हंसें पर यह वास्तविकता है कि पहले और अब का यह फर्क मेरा बहुत निकट से कई घरों में देखा हुआ है।
अधिक विस्तार से समझाने की आवश्यकता नहीं है कि दवाओं से लेकर चाबी के छल्ले बेचने वाले अध्यात्मिक संस्थानों की वजह से भी हमारे देश के छोटे कामगारों और व्यवसायियों की रोजी रोटी प्रभावित हुई है। हम अक्सर विदेशी और देशी कंपनियों पर लघु उद्योगों को चैपट करने का आरोप लगाते हैं पर देखा जाय तो उत्पादन से लेकर वितरण तक अपने भक्तों की सहायता से काम करने वाले इन अध्यात्मिक संस्थाओं ने भी कोई कम क्षति पहुंचाई होगी ऐसा लगता नहीं है। हमारा यह विचार कि हिंदी के पाठक कम हैं इसलिये पत्र-पत्रिकायें कम पढ़ी जा रही हैं। वस्तुतः उनकी जगह इन पत्रिकाओं ने समाप्त कर दी है। बढ़ती जनसंख्या के साथ जो पाठक बढ़े उन पर इन आध्यात्मिक पत्रिकाओं ने उन पर नियंत्रण कर लिया। इनके प्रचार प्रसार की संख्या का किसी को अनुमान नहीं है पर मैं आंकड़ों के खेल से इसलिये परे रहता हूं क्योंकि जो सामने देख रहा हूं उसके लिये प्रमाण की क्या जरूरत हैं। अधिकतर घरों में मैंने ऐसी आध्यात्मिक पत्रिकायें और अन्य उत्पाद देखे हैं और लगता है कि अगर यह अध्यात्मिक संस्थान उन वस्तुओं के उत्पाद और वितरण से परे रहते तो शायद रोजगार के अवसर समाज में और बढ़ते।
अपने अध्यात्मिक विषयों में मेरी रुचि किसी से छिपी नहीं है मै अंधविश्वास और अंध भक्ति में यकीन नहींे करता और मेरा स्पष्ट मत है कि अध्यात्म के विषयों का अन्य विषयों के कोई संबंध नहीं है। अगर आप ज्ञान और सत्संग का प्रचार कर रहे हैं तो किसी अन्य विषय से संबंध रखकर अपनी विश्वसीनयता गंवा देते हैं। यही वजह है कि आजकल लोग संतों पर भी जमकर आक्षेप कर रहे हैं। मै संतों पर आक्षेप के खिलाफ हूं पर जिस तरह अध्यात्मिक संस्थान अन्य सांसरिक उत्पादों के निर्माण और वितरण का कार्य छोटे लोगों को रोजगार के अवसरों को नष्ट कर रहे हैं उसके चलते किसी को ऐसे आक्षेपों से रोकना भी मुश्किल है। अगर लोगों के किसी कारण रोजगार के अवसर प्रभावित होते हैं तो उस पर आक्षेप करना उनका अधिकार है।
बाजार अगर लोगों की भावनाओं को भुनाता है तो उससे बचने के लिये लोगों को अध्यात्म का ज्ञान कराकर बचाया जा सकता है पर अगर अध्यात्मिक संस्थान ही इसकी आड़ में अपना बाजार चलाने लगें तो फिर उनको अध्यात्म ज्ञान देना भी कठिन क्योंकि उनके चिंतन और अध्ययन की बौद्धिक क्षमता का हरण उनके कथित गुरू अपने उपदेशों से पहले कर चुके हैं।
adhyatm, alekh, bharat, chintan, megazine, अभिव्यक्ति, अर्थशास्त्र, संस्कार, हिंदी संपादकीय
भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
-
*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
*----*
*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
3 comments:
आपके इस लेख से बहुत पहले की बात याद आ गई। एक दिन हमारी एक दोस्त ने हम सबको आसा राम बापू की फोटो वाला पेन दिया था और हस सभी को बड़ा अजीब लगा था कि इस तरह के प्रचार कि क्या जरुरत है जब वैसे ही करोड़ों लोग इनके शिष्य है।
दीपक जी, बड़ी पारखी नजर है आपकी। एक तकनीकी त्रुटि इस पोस्ट में है कि ऊपर के पांच पैरे दो बार लग गए हैं। कृपया इसे सुधार लें।
वैसे, मेरी पोस्ट पर टिप्पणी में लिखी आपकी कविता
जबरदस्त है।
आपके विचार सुंदर है !
Post a Comment