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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/16/08

अध्यात्म और धर्म अलग अलग विषय हैं-आलेख (2)

अध्यात्मिक ज्ञान जिस व्यक्ति को होता है उसका मानसिक तथा बौद्धिक शोषण कतई नहीं किया जा सकता है। अध्यात्म ज्ञान कोई अधिक व्यापक नहीं है पर उसका अर्थ समझकर उसे धारण करना बहुत कठिन है। वैसे एक बात स्पष्ट है कि समस्त धार्मिक विचाराधाराऐं अध्यात्मिक ज्ञान के आधार को ही मजबूत करने का दावा करती हैं पर वह उसमें अनेक कहानियां तथा सांसरिक विषय इस तरह जोड़ दिये गये हैं कि सामान्य मनुष्य भ्रमित हो जाता है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान जो कि सत्य का साक्षी है उसकी चर्चा तो पूरे विश्व में होती है पर उसका अध्ययन, चिंतन और मनन कितने लोग करते हैं और उसमें भी कितने उसे धारण कर पाते हैं? यह अलग चर्चा का विषय है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने वाले कथित संतों ने अनेक प्रकार की चमत्करिक कहानियां तथा सांसरिक विषय उसमें इस तरह जोड़े हैं कि उसका मूल स्वरूप ही किसी की समझ में नहीं आता।

भारत में अध्यात्मिक ज्ञान का दावा रखने वाले तो बहुत मिल जायेंगे पर उसके सूक्ष्म रूप का किसी को पता नहीं है। अपने व्यवसाय, नौकरी तथा खेती से निराश होने पर अक्सर लोग कहते हैं कि ‘हमारा काम हैं कर्म करना और फल देना तो परमात्मा का का है।’ सुनने में यह कितना अच्छा लगता है। कहने वाले तो यही कहेंगे कि यह श्रीगीता में ऐसा ही कहा गया है।
श्रीगीता में केवल कर्म की बात नहीं कही गयी बल्कि निष्काम कर्म की बात कही गयी है। जब कोई कहता है कि ‘हमने अपना काम किया और फल देना तो परमात्मा का काम है’ तो यह उसके निष्काम होने का प्रमाण नहीं है क्योंकि अपने कर्म के साथ कहीं न कहीं उसके फल पाने की इच्छा प्रकट होती है।’

पहले तो कर्म का फल का स्वरूप ही समझ में आना चाहिये तभी तो आदमी निष्काम भाव से कार्य कर सकता है। दरअसल निष्काम भाव से कर्म करना ही जीवन से विषादों से मुक्ति दिलाने का उपाय है और लोग निष्काम भाव से काम न करें इसलिये उनको उसका उपदेश दिया जाता है पर प्रेरित तो उस सांसरिक फल के लिये ही किया जाता है जो उनके जीवन और विचारों को सीमित दायरों में बांध देता है। वह सांसरिक पदार्थों की फल समझते हैं जिनका उपयोग भी वह यही करते हैं। अगर कोई मनुष्य नौकरी कर रहा है तो उसका वेतन, व्यवसायी है तो उसका लाभ और मजदूर है तो उसकी मजदूरी क्या फल है? नहीं अगर यह फल है तो फिर वह इसका उपयोग वह अकेला कहां करता है? मनुष्य द्वारा भौतिक मुद्रा अर्जित करना फल नहीं है क्योंकि वह उसे भी तो अपने तथा परिवार के ऊपर ही व्यय करता है। कोई अपने बच्चे की फीस भर रहा है तो कोई अपनी पत्नी का इलाज करा रहा है तो कोई मकान बनवा रहा है। कोई अपने पिता को दे रहा है तो कोई माता को दे रहा है। कभी भाई की मदद कर रहा है। भला इस धनोपब्धि को फल कैसे कहा जाता है। जब वह अपने हाथ से कहीं से धन लेता है तो वह फल नहीं बल्कि अपने कर्तव्यों और दायित्वों के निर्वाह के लिये लेता है। यह धन लेना उसका कर्तव्य है न कि फल! धन प्राप्त करना आपका कर्म है और व्यय करना भी-उसे फल कैसे कहा जा सकता है।

दूसरी बात तो छोडिये जो दुनियां भर का ज्ञान बघार रहे हैं वह भी इसमें से अपने लिये दान मांगते हैं और बताते हैं कि यह आपकी धार्मिक जिम्मेदारी है। सीधा आशय यह है कि आपने जो धन कमाया वह तो आपके कर्म का दायित्व बढ़ाता है और आप उसे कहीं अन्य व्यय कर अपना कर्तव्य निबाहते हैं। जब तक देह है उसे बनाये रखने के लिये व्यय करते हैं पर यह तो हमारा कर्म है। यह फल कहां से कहा जा सकता है?

सवाल यह है कि फिर फल क्या है? फल है हम अपने जीवन में शांति से रह पायें और जब देह त्याग करने का समय आये तो शांति और संतोष के साथ मोक्ष प्राप्त करें। यही असली फल है जिसकी तरफ ले जाने की ताकत केवल भारतीय अध्यात्म के ज्ञान में ही हैं। पहले उस सांसरिक फल का स्वरूप भी समझ लें। अगर हमने किसी से माह भर कार्य करने, अथवा वस्तु बेचने या मजदूरी करने पर किसी से धन मांगा तो क्या वह फल मांगना है। नहीं! यह तो उसे अपने सांसरिक कर्तव्य का निर्वाह करने के लिये प्रेरित करने का प्रयास है जिससे हम अपने आगे के कर्तव्य का निर्वाह कर सकें। मतलब यह कि अगर कोई अध्यात्म का ज्ञान रखता है तो वह अपने कर्तव्य निर्वाह के लिये धन प्राप्त करना फल नहीं बल्कि कर्तव्य ही हैै। यह अलग बात है कि जिन लोगों को पैसा देना नहीं होता वह कह देते हैं-‘क्या, तुम ज्ञानी होकर पैसा मांगते हो।’ याद रखना अध्यात्म का ज्ञान होने का आशय यह कदापि नहीं कि आदमी सांसरिक विषयों को त्याग कर भागने की तैयारी कर ले। एक सामान्य व्यक्ति और अध्यात्मिक ज्ञानी व्यक्ति के बस दृष्टिकोण में अंतर होता है। सामान्य व्यक्ति अपनी धनोपब्धि पर ही प्रसन्न होकर रह जाता है तो उसके जाने पर उसे भारी कष्ट होता है। इसके विपरीत अध्यात्म का ज्ञान रखने वाला धन मिलने पर उसे फल मानते हुए उसमें लिप्त नहीं होता। सामान्य व्यक्ति एक के बाद दूसरी और दूसरी उपलब्धि के पीछे भागता है और अपने पूरे जीवन में शांति से नहीं बैठ पाता और न मनुष्य देह का सुख उठा पाता है जबकि ज्ञानी अपने लिये शांति से जीने के पल जुटा लेता है और फिर दृष्टा की तरह इस संसार में मानव देह होने का वह आनंद भी उठाता है।

अगर आप देखें तो सारे धर्म तमाम तरह के कर्मकांड प्रतिपादित करते हैं जिनका निर्वाह उसी धनोपलब्धि से किया जा सकता है जो हमने प्राप्त की है। सभी धर्मों के गुरू उसी धन पर अपनी नजरें गड़ाये हुए स्वर्ग में टिकिट रिजर्वेशन करने की गारंटी अपने भक्तो को देते हैं। उनका संदेश तो यही होता है कि ‘ला! माल ला! और ले जा स्वर्ग का टिकिट!

सभी आसमान की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि ‘देने वाला तो वही है’, ‘उसकी इच्छा के बिना यहां कुछ भी नहीं हो सकता’ और सभी के मन की इच्छा वही पूरी करता है’। ऐसा कहकर वह सांसरिक उपलब्धियोें को ही फल बताते हैं। कुल मिलाकर सभी धर्मों के कर्मकांड पैसा खर्च कर फल दिलाने के सिद्धांत पर आधारित हैं। जबकि भारतीय अध्यात्म बिना किसी सांसरिक फल के योग साधना और प्राणायम कर देह और मन के विकार दूर करने तथा ध्यान और प्रार्थना के आधार शांति का वह फल दिलाने वह ज्ञान है जो देह रहते और बाद में भी आदमी को संतोष प्रदान करता है। समस्या है गुरू की। श्रीगीता में भी गुरू का गुणगान है जिसका सबसे अधिक प्रचार वह कथित संत करते हैं जिन्होंने गीता के ज्ञान को समझा नहीं पर स्वयं गुरू बनने की लालसा में वह अपने भक्तों को वह अवश्य बताते हैं। अपने भक्तों का अध्यात्म का ज्ञान वह कभी नहीं देते। हां, अनेक कहानियां तथा सांसरिक विषयों में उलझा कर अपनी भक्त का हृदय फिर उसी सांसरिक दलदल में फंसा देते हैं जहां वह कमल की तरह खिलने की इच्छा रहकर आता है। यह केवल भारतीय धर्मगुरूओं का ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में यही हाल है। धर्म के नाम शोषण केवल इसलिये हो रहा है क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान को सभी दबाये रखना चाहते है ताकि उसके मूल स्वरूप से लोग अवगत न हों।
श्रीगीता में अध्यात्म का जो ज्ञान है वह अनुपम है पर उसे कथित साधु संत अपने हिसाब से व्याख्या इस तरह करते हैं कि वह स्वयं ही अपने भक्तों में भगवान के रूप में स्थापित रहें। अब यह उनकी चालाकी भी हो सकती है या ऐसा भी कि वह स्वयं ही उस ज्ञान को धारण नहीं कर पाते और अपनी यही कमी छिपाने के लिये तमाम तरह के चुटकुले, कहानियां तथा सांसरिक विषयों की प्रधानता पर ही अधिक प्रवचन करते हैं। शेष अगले अंक में

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,लेख पढ कर आप की गहरी सोच व चिन्तन देख मन आनंदित हुआ। ...लेकिन मुझे आप के लेख की अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।

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