इसमें कोई संदेह नहीं है कि अंतर्जाल पर अपनी भारतीय अध्यात्म से पैदा सहज विचाराधारा को प्रमाणित करने का जो अवसर मिला वह पहले नहीं मिल सका था और इसका कारण यही है कि सारा समाज ही इन दो तीन विचाराधाराओं में बह रहा है और उसने एक वैचारिक रूप बना लिया है जिससे बाहर वह सोच भी नहीं पाता। सहां सहज धारा को मौलिकता के साथ देखने वाले के लिये एक लेखक और विचारक के रूप में कोई मान्यता नहीं है। उसमें भी एक पैंच यह है कि एक धारा का आदमी दूसरे का समर्थक समझता है तो दूसरा यह कहकर भाव नहीं देता कि यह तो केवल प्रदर्शन के लिये ठीक है कि हां, भारतीय अध्यात्म पर लिख रहा है बाकी फसाद में किसी काम का नहीं है। देश में विचारधाराओं की धारा बहाई इसलिये गयी है कि उन पर द्वंद्व कर जनता का ध्यान अन्य मुद्दों से हटाया जाये। हालांकि इन विचाराधाराओं के पोषकों की नयी पीढ़ी में विद्रोह है और उसका प्रमाण अंतर्जाल पर ही देखा जा सकता है बाकी टीवी और समाचार पत्रों में यह प्रतिबिंबित नहीं होता। यही कारण है कि यह लेखक मानता है कि आने वाले समय में ब्लाग लेखन उसी विद्रोह को बृहद रूप देगा।
विद्रोह के बावजूद ब्लाग लेखकों पर विचाराधाराओं के लेखकों की लेखनी रक्षात्मक है। यह अलग बात है कि कभी वह नाराजगी के साथ प्रकट होते हैं। इन दोनों तीनों विचारधारा के लेखकों की जागरुकता, लिखने की क्षमता और दृढ़ता बहुत प्रशंसनीय लगती है पर उनका लेखन वैसे ही सतही स्तर का है जैसे कि उनके पूर्वज बता गये- यह देखकर निराशा होती है।
आखिर इन विचाराधाराओं में कमी क्या है? इसका जवाब है कि केवल नारे लगाने या वाद गढ़ने से क्या होगा? शक्ति आने पर उसके उपयोग की भी क्षमता और योजना भी होना चाहिये और सभी विचाराधाराओं के नयी पीढ़ी के रचनाकार यह देखकर निराश हैं कि जिन लोगों ने उनके सहारे शक्ति प्राप्त की वह केवल उसकी रक्षा में जुट गये और विचाराधारा को एक तरफ हटाकर रख दिया। इस पीढ़ी की यह निराशा विद्रोह का कारण है पर ठीक नहीं है क्योंकि याद रखिये आंदोलन चलाना अलग बात है और समाज या देश चलाना अलग। ऐसे में हाथ पांव पटकना बेकार है कि उसने यह किया या उसने वह किया।
मुख्य बात यह नहीं कि विचाराधारायें या संगठन नाकाम हो रहे हैं बल्कि कार्यप्रणाली की नाकामी है और उसका कारण यह है कि कोई भी विचारधारा केवल नारे या वाद पर सिमटी हुई है और कार्यशैली के बारे में खामोश है।
एक सवाल यह है कि प्रगतिशील, जनवादी या परंपरावादी विचाराधाराओं की बात करें तो उनमें नारों की भरमार है। वाद गढ़े गये है और उनका कोई तार्किक आधार नहीं है।
मुख्य बात चिंतन की है। उसमें मौलिकता का सर्वथा अभाव है। हमने अनेक महापुरुष देखें हैं पर उनमें से अधिकतर स्वाधीनताकाल से पहले के हैं और उनकी आंदोलनों में बेहतर भूमिका होने के बावजूद यह नहीं कह सकते कि उनमें समाज या देश को चलाने की क्षमता या योग्यता थी। कहने को तो राजकाज पर कोई बैठ सकता है पर मुख्य बात यह है कि जनहित कौन कर सकता है इस पर कभी नहीं सोचा गया। पूरे देश के आर्थिक, साहित्यक तथा सामाजिक संस्थान इस देश को एक निश्चित योजना के तहत चला रहे हैं जिसमें नयी शक्तियां, व्यक्ति या विचार के उभरने की क्षमता न के बराबर है। ऐसे में अंतर्जाल पर हम उन संभावनाओं को तलाश रहे हैं जिनको बाहरी जगत पूरा नहीं कर सकता। इसके लिये यह जरूरी है कि ब्लाग/वेबसाईट लेखक पुरानी घिसीपिटी विचाराधाराओं से हटकर जरा मौलिक सोचें। इस लेखक का तो सीधा मानना है कि जब तक सहजभाव से मौलिक चिंतन नहीं होगा तब तक समाज में शांति, भाईचारा या विकास की धारा बहना कठिन है।
यह सब बातें केवल हिंदी ब्लाग जगत को देखकर नहीं लिखी जा रही है बल्कि अंतर्जाल पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय की हिंदी सहित अन्य भाषाओं की वेबसाईट और ब्लागों की सामग्री और उन पर लगी घृणा भरी टिप्पणियां देखकर लिखी जा रही है। यहां न केवल विचाराधारायें विदेश से आयी हैं बल्कि कार्यप्रणाली भी उन जैसी हो गयी है। सच कहें तो जो समस्यायें हमें राष्ट्रीय लगती हैं पर अंतर्जाल देखकर यह कहना पड़ रहा है कि उनका अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया है। कहने का आशय यह है कि हमें अब बृहद दृष्टिकोण अपनाना है क्योंकि अपने देश के उग्र तत्वों के साथ विदेश में मौजूद उग्र और नकरा तत्वों से भी जूझना है। यही समस्या विदेशियों के साथ भी आ सकती है क्योंकि हम यह नहीं कह सकते कि हमारे यहां उग्र या नकारा तत्व नहीं है। इंटरनेट के सहारे होने वाले अपराध का एक सिरा यहां है तो दूसरा बाहर तब यह जरूरी है कि उसके लिये बाहर की सहायता ली जाये। ऐसे में यह भाव भी रखना होगा कि बाहर वालों की हम सहायता करें।
यहां यह साफ करना इस लेखक के लिये जरूरी है कि जो भी विचार ब्लाग पर लिखता है वह बरसों से अपने जीवन और लेखन से उपजे अनुभाव का परिणाम है। सच तो यह है कि कुछ भी बदलते नहीं देखा। समय, पहनावा, जीवन शैली के साथ लिखने पढ़ने का तरीका बदला पर मौलिक रूप से सब वही है जैसा पहले था। गरीब के प्रति उपेक्षा का भाव और अमीर की चमचागिरी बरसों पुरानी है। हिंदी लेखक को बंधुआ बनाने की प्रवृत्ति नई नहीं है पर अंतर्जाल पर ब्लाग लेखन उससे बचने का एक उपाय है जिसका हम उपयोग कर रहे हैं। ऐसे में कुछ लेख ऐसे आ सकते हैं जो मित्र ब्लाग लेखकों को लगे कि उनको संकेत कर लिखे गये हैं तो वह उससे बचें क्योंकि वह जाने अनजाने गुलामी के कचड़े को यहां ढो रहे हैं अब यह गुलामी अपनों की भी हो सकती है और परायों की भी। आज वह पुराने दो लेख डालने का मन था पर उनमें अभी कुछ ऐसा जोड़ना है जिनमें अंतर्जाल पर पढ़ी गयी सामग्री का भी उल्लेख करना है क्योंकि वह भी बाहर से लायी गयी है। एक पुरानी योजना को नये ढंग से लाया गया है। हां, एक नये अवतार की अवधारणा है जिसे इस देश पर लादने का प्रयास बरसों पहले हुआ था अब अंतर्जाल भी हो रहा है। हम तो मौलिक चिंतन वाले हैं और यही चाहते हैं कि भले ही पुरानी विचारधाराओं के लेखक लिखें पर उस पर उनका मौलिक सोच होना चाहिये जो कि दिखाई नहीं देता। ऐसा लगता है कि पुरानी लकीरें पीटते हुए लोग यहां चले आ रहे हैं। यह हमने इसलिये लिखा कि कुछ टिप्पणियां ऐसी मिल रही हैं कि ‘आप कबीर और मनुस्मृति के विवादास्पद विषय पर लिखने से बच रहे हैं।’
हमने उनका यही जवाब दिया कि ‘हम तो मौलिक विचार वाले हैं लकीर के फकीर नहीं। अगर तुम्हारे पास किताबें हैं तो उनको पढ़ो पर हम यहां वही रखेंगे जिसे वर्तमान संदर्भ में सही समझेंगे।’
हमारे अध्यात्मिक दर्शन में समय समय पर बदलाव की अनुमति है पर मूल तत्वों में बदलाव की आवश्यकता नहीं है। हमारा मौलिक चिंतन स्पष्ट है कि सहज भाव अपने अंदर लाओ तो सब सहज हो जायेगा। यह सहज भाव कैसे आये? इस पर इसी ब्लाग पर फिर कभी।
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2 comments:
बढ़िया है यह मौलिक विचार ।
बढ़िया है यह मौलिक विचार ।
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