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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/24/09

अंतर्जाल लेखक विषय तथा शैली के लिये किसी का मुख न ताकें-संपादकीय (internet hindi writers-hindi article)

अंतर्जाल पर हिंदी अब वैश्विक काल में प्रवेश कर चुकी है पर अधिकतर अंतर्जाल लेखक आधुनिक हिन्दी काल के लेखकों से प्रभावित हैं। यह उनकी सोच हो सकती है कि वह भी आधुनिक हिंदी काल के लेखकों की तरह लिखें पर अंतर्जाल पर ऐसा करने से उनकी रचनायें प्रभावहीन भी साबित हो सकती हैं। दरअसल अंतर्जाल पर ‘गागर में सागर‘ भरना एक सबसे बड़ी शर्त है और जिसे पूरा किये बिना पाठकों की अपने ब्लाग या बेवसाईट पर निरंतरता बनाये रखना संभव नहीं है। वैश्विक काल में प्रविष्ट कर चुकी हिंदी न केवल रचना के प्रारूप बल्कि विषयों की दृष्टि से भी भिन्न रहेगी।
हमने देखा होगा कि आधुनिक काल के लेखकों में कई ऐसे हैं जिन्होंने न केवल बड़े बड़े उपन्यास लिखे बल्कि लंबे चैड़े काव्य ग्रंथ भी लिख डाले। उन्होंने नाम भी कमाया पर उनको वैसा पाठक समाज भी मिला जिसके पास समय भी था तो पुस्तकें भी इतनी महंगी नहीं थी। अंतर्जाल पर स्थितियां अलग हें।
आजादी के कुछ काल तक तो हिन्दी में समर्पित हिंदी लेखकों ने संघर्ष किया पर उसके बाद का दौर इतना सहज नहीं रहा कि मौलिक और स्वतंत्र लेखक अपने लिये कोई लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त कर सके। हिंदी लेखन में व्यवसायिक उपलब्धि नगण्य रही है इसलिये स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के बढ़ती महंगाई और कठिन होते सामाजिक जीवन के बीच अपनी रचनायें करनी पड़ी पर उसके लिये कोई प्रकाशक नहीं मिला। समाचार पत्र पत्रिकाओं में भी एक दो बार छपने के बाद उसे इतना प्रोत्साहन नहीं मिला कि वह लेखन के साथ प्रकाशन यात्रा भी जारी रख सके। नये दौर में हिंदी में लिखा बहुत गया पर प्रभावशील कितना रहा सभी जानते हैं।
सच तो यह है कि आधुनिक काल का अंतिम दौर हिंदी लेखन की दृष्टि से जड़ता से घिर गया था। केवल समसामयिक विषयों पर तत्काल नाम कमाने की लालसा ने लेखकों को साहित्य से परे कर दिया। साहित्य लेखकों को एक तरह से खामोश व्यक्तित्व मानकर उपेक्षा कर दी गयी। अगर हम देखें तो कुछ निश्चित विषय है जो घटनाक्रम और व्यक्ति बदल कर प्रकट होते हैं और बदल बदल कर उन पर ही लिखा जाता है और यही रह गया है समसामयिक लेखन। यह एक अलग विषय है पर यहां इंटरनेट पर दोनों प्रकार के लेखन के लिये जोरदार भूमि बनने जा रही है।

जिन लोगों ने सहित्य लिखा भी तो वह समसामयिक संदर्भों में ही अधिक दिखा। इसमें जो सबसे बड़ी बात देखनी होगी वह यह कि देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक व्यवस्था पर प्रहार करते हुए लेखकों ने बहुत लोकप्रियता प्राप्त की। आपने सुना होगा कि अमुक लेखक आज की व्यवस्था पर प्रहार करता है इसलिये बहुत अच्छा है। आधुनिक काल के लेखकों की यह प्रहारात्मक मुद्रा भले ही उन्हें लोकप्रियता दिलाने में सफल रही पर उनकी रचनायें समाज के लिये कितनी उपयोगी है इस पर भी विचार करना चाहिये। आप उस व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं जिसका आप न केवल हिस्सा है बल्कि उसे चला भी रहे हैं। उससे भी बड़ी बात तो यह है कि आप खुद वही काम कर रहे हैं जिसके लिये दूसरों की आलोचना करते हैं। जब आपको ध्यान दिलाया जाये कि आपका जवाब होता है कि ‘क्या करें? व्यवस्था और समाज की मजबूरी है।’
इसमें भी एक मजेदार है कि व्यवस्था पर लेखकों ने निशाने लगे पर उस व्यवस्था के शिखर पुरुषों के साथ ही उठना बैठना भी रखा। इनाम भी पाये। सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक शिखर पुरुषों के नाम उनके लिये भी उतने ही अनुकरणीय रहे जितना आम आदमी के लिये। तब सवाल यह उठाता कि व्यवस्था पर प्रहार का क्या अर्थ रह गया।
इसके अलावा गरीबों, मजदूरों और पीड़ितों पर भी बहुत लिखा गया पर उनकी पीड़ाओं को उबारने के अलावा किसने क्या किया? यह भी एक विचार का विषय है।
हम आज की सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक, तथा धार्मिक व्यवस्थाओं को देखें तो इसके लिये आम और खास दोनों ही प्रकार के लोग जिम्मेदार हैं। इसके विरुद्ध लिखने वाले लोगों ने पीड़ाओं को लिखकर एक तरह से आत्मप्रचार ही किया। वह हमेशा नीचे के तबके को छोड़कर ऊपर के तबके पर प्रहार करते रहे। उन्होंने इस बात की अनदेखी की कि समाज स्वयं भी अपनी परेशानियों के लिये जिम्मेदार है। लेखकों ने अपने शिखर बना लिये ओर आम लेखक के लिये जगह बची तो केवल संपादक के नाम पत्रों में।
इधर अंतर्जाल पर कुछ लेखक अपनी रचनाओं में पंरापरागत ढंग से हटकर लिखने का संकेत दे रहे हैं-अब यह पता नहीं कि यह उनकी योजना है या उनकी अभिव्यक्ति की शैली ही ऐसी है। विषयों के बारे में भी यह स्पष्ट है कि अनेक अंतर्जाल लेखक अब समाज के बड़े वर्ग के साथ छोटे वर्ग के लोगों की भी कमियां निकाल रहे है। व्यवस्था पर प्रहार करना जरूरी है पर उसमें बदलाव का रूप भी सामने आना चाहिये। वैश्विक काल के हिंदी लेखकों को अपनी अभिव्यक्ति को स्वाभाविक रूप से बाहर आने देना चाहिये-यही उनके लिये अच्छा होगा। अंतर्जाल लेखकों न तो शैली के लिये न ही विषय के लिये पुराने लेखकों के अनुकरण की सोचना चाहिये। यहां उनको नये विषय और नयी शैलियां विकसित करनी होंगी। कुछ लोगों ने ट्विटर का नाम सुना होगा। अब बताईये 140 अक्षरों में अपनी बात कैसे कही जायेगी-मगर कहने वाले उसमें भी कह कर बतायेंगे।

एक और दिलचस्प बात यह है कि हिंदी के अंतर्जाल लेखक को भले ही पाठक अभी कम मिल रहे हों पर पुराने स्थापित संगठन तथा लेखक इस बात से घबड़ाये हुए हैं कि लोग स्वतंत्र रूप से लिख रहे हैं। उनको अपनी पकड़ कमजोर होती दिख रही है। इसलिये वह या तो मार्गदर्शक बनकर अपनी तस्वीर अंतर्जाल लेखकों के सामने आ रहे हैं या फिर आलोचक बनकर मूंह फेर रहे हैं। आखिरी बात यह है कि हो सकता है कि कुछ अंतर्जाल लेखक कविताओं से परहेज करते हों पर उनको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि पाठकों के लिये यहां विषय का सार महत्वपूर्ण है। कथ्य, तथ्य और वक्तव्य की गेयता उसके गद्य या पद्य से नहीं बल्कि उस सार से है जिसे पाठक समझ सकता है। कम से कम अपनी हास्य कविताओं के पाठक संख्या और उनकी पसंद से तो इस लेखक को यही लगता है। बाकी कोई यहां ब्रह्मा तो नहीं है कि अपनी बात आखिरी मान लें। शेष फिर कभी।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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2 comments:

शरद कोकास said...

हर लेखक को अपने तरह से लिखने की स्वतंत्रता है और शैली मे परिवर्तन होता ही है । मं कविता में बार बार अपना फॉर्म तोड़कर लिखता हूँ । समीक्षा की मैने नई शैली विकसित की है । यह लेखक का स्वभाव भी होता है कि वह अपने शिल्प से ऊब भी जाता है तब सहज रूप से परिवर्तन कर लेता है । यह तो आदिकाल से होता आया है अत: ब्लॉग लेखन मे भी यह होगा ही । संगठनो के घबराने के कारण अन्य भी हैं यह अलग चर्चा का मुद्दा है । बहरहाल इस महत्वपूर्ण चिंतन के लिये धन्यवाद ।

अनुनाद सिंह said...

दीपक जी,
आपका चिन्तन और सुझाव दोनो ही बहुत उपयोगी लगे। हिन्दी के विकास के लिये इसके लेखकों का विकास (भाषा, शैली, चिन्तन, वर्ण्य-विषय आदि के सन्दर्भ में) भी बहुत महत्वपूर्ण है।

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