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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/23/07

भूख और फ़रिश्ते

सुबह लगती है
दोपहर को उबलती है
शाम ढलती है
पर मन में उफनती हैं
रात को भी नहीं हैं विराम
भूख ऐसी आदत हैं इंसान की
जो तन की मिट जाये
पर मन की कभी नहीं भरती है
अगर वह नहीं होती तो
आसमान में फ़रिश्ते बेकार होते
धरती पर उनके लिए
कभी कोई नहीं होता काम
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3 comments:

Udan Tashtari said...

उम्दा रचना, बधाई.

36solutions said...

शाश्‍वत

'आरंभ' छत्‍तीसगढ की धडकन

रवीन्द्र प्रभात said...

सुनता कोई किसी की नहीं, ...यह सोलह आने सच है ,शेर मूलहिज़ा फर्माईये-
ज़िंदगी है जंग जीते और हारे ज़िंदगी,
कौन है हमदर्द जिसको अब पुकारे ज़िंदगी.

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