सुबह लगती है
दोपहर को उबलती है
शाम ढलती है
पर मन में उफनती हैं
रात को भी नहीं हैं विराम
भूख ऐसी आदत हैं इंसान की
जो तन की मिट जाये
पर मन की कभी नहीं भरती है
अगर वह नहीं होती तो
आसमान में फ़रिश्ते बेकार होते
धरती पर उनके लिए
कभी कोई नहीं होता काम
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भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
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*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
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*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
3 comments:
उम्दा रचना, बधाई.
शाश्वत
'आरंभ' छत्तीसगढ की धडकन
सुनता कोई किसी की नहीं, ...यह सोलह आने सच है ,शेर मूलहिज़ा फर्माईये-
ज़िंदगी है जंग जीते और हारे ज़िंदगी,
कौन है हमदर्द जिसको अब पुकारे ज़िंदगी.
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