सुबह लगती है
दोपहर को उबलती है
शाम ढलती है
पर मन में उफनती हैं
रात को भी नहीं हैं विराम
भूख ऐसी आदत हैं इंसान की
जो तन की मिट जाये
पर मन की कभी नहीं भरती है
अगर वह नहीं होती तो
आसमान में फ़रिश्ते बेकार होते
धरती पर उनके लिए
कभी कोई नहीं होता काम
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शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
5 years ago
3 comments:
उम्दा रचना, बधाई.
शाश्वत
'आरंभ' छत्तीसगढ की धडकन
सुनता कोई किसी की नहीं, ...यह सोलह आने सच है ,शेर मूलहिज़ा फर्माईये-
ज़िंदगी है जंग जीते और हारे ज़िंदगी,
कौन है हमदर्द जिसको अब पुकारे ज़िंदगी.
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