मन से मनुष्य कहलाया
चलता है उसी के इशारों पर
अन्दर बैठे अहंकार ने
स्वयं ही चलने का अहसास कराया
कह गए बडे-बडे सिद्ध
अपने मन को पहचानो
कभी नाचता है
कभी भागता है
कभी भक्ति भी चाहता है
स्वयं मनस्वी होकर चलो
यही सभी ने समझाया
पर आदमी नहीं समझता
अपनी बुद्धि और अंहकारवश
दूसरों में तलाशता अपने लिए अक्ल
माया के सिंहासन पर बैठे
बुतों के इर्दगिर्द देकर परिक्रमा देकर
बहुत सुकून अनुभव करता
तन की खुशी को ही मन की समझता
इसलिए हांक कर ले जाते है
इस ज़माने के उसे नये खैरख्वाह
रुपहले परदे पर देखे दृश्य को
असली समझता
नाम के मनुष्य बहुत हैं पर
सबका मन मुरझाया
जब तक चलते हैं दृश्य
गूंजता हैं कानों में भयानक शोर
तब तक चलता है
अकेले में छा जाता है उस पर उदासी का साया
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शब्द तो श्रृंगार रस से सजा है, अर्थ न हो उसमें क्या मजा है-दीपकबापूवाणी
(Shabd to Shrangar ras se saja hai-DeepakBapuwani)
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*बेपर इंसान परिदो जैसे उड़ना चाहें,दम नहीं फैलाते अपनी बाहे।कहें दीपकबापू
भटकाव मन कापांव भटकते जाते अपनी राहें।---*
*दीवाना बना ...
4 years ago
2 comments:
बहुत सुन्दर!!
जब तक चलते हैं दृश्य
गूंजता हैं कानों में भयानक शोर
तब तक चलता है
अकेले में छा जाता है उस पर उदासी का साया
अति सुन्दर । सोचने को मजबूर करती कविता।
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