मन से मनुष्य कहलाया
चलता है उसी के इशारों पर
अन्दर बैठे अहंकार ने
स्वयं ही चलने का अहसास कराया
कह गए बडे-बडे सिद्ध
अपने मन को पहचानो
कभी नाचता है
कभी भागता है
कभी भक्ति भी चाहता है
स्वयं मनस्वी होकर चलो
यही सभी ने समझाया
पर आदमी नहीं समझता
अपनी बुद्धि और अंहकारवश
दूसरों में तलाशता अपने लिए अक्ल
माया के सिंहासन पर बैठे
बुतों के इर्दगिर्द देकर परिक्रमा देकर
बहुत सुकून अनुभव करता
तन की खुशी को ही मन की समझता
इसलिए हांक कर ले जाते है
इस ज़माने के उसे नये खैरख्वाह
रुपहले परदे पर देखे दृश्य को
असली समझता
नाम के मनुष्य बहुत हैं पर
सबका मन मुरझाया
जब तक चलते हैं दृश्य
गूंजता हैं कानों में भयानक शोर
तब तक चलता है
अकेले में छा जाता है उस पर उदासी का साया
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भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते-दीपकबापूवाणी (bhramjal Failakar singhasan
paa jaate-DeepakbapuWani
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*छोड़ चुके हम सब चाहत,*
*मजबूरी से न समझना आहत।*
*कहें दीपकबापू खुश होंगे हम*
*ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।*
*----*
*बुझे मन से न बात करो*
*कभी दिल से भी हंसा...
6 years ago
2 comments:
बहुत सुन्दर!!
जब तक चलते हैं दृश्य
गूंजता हैं कानों में भयानक शोर
तब तक चलता है
अकेले में छा जाता है उस पर उदासी का साया
अति सुन्दर । सोचने को मजबूर करती कविता।
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